बच्चों ने परीक्षाएँ देने के बाद राहत की सांस ली है। कमरतोड़ बस्ते की पढ़ाई का एक और साल निकल गया। वे एक और क्लास आगे बढ़ गए | अगली क्लास की पढ़ाई दो महीने बाद शुरू होगी। तब तक के लिए आराम, मस्ती, खेलना-कूदना। अपने आसपास के बच्चों को मैंने उनके ही अंदाज में छुट्टियों (SUMMER VACATION) की प्लानिंग बनाते सुना-
मैं एक हफ्ता ट्रैकिंग पर जाऊंगा। मेरे पापा ने जनवरी में ही मुझे एनरॉल करा दिया था।’
दूसरी आवाज
‘मेरी ममी तो मुझे भरतनाट्यम की क्लास में डाल रही हैं। समर वेकेशन में रोज दो-दो घंटे, उसके बाद वीकेंड में दो-दो घंटे दो दिन।’
फिर आवाज बदल गई
‘मैं अपनी क्लास के दोस्तों के साथ वेस्टर्न डांस क्लास अटैंड करूंगी।’
एक और बालक ने कहा
‘मैं सुबह ताइक्वांडो और शाम को हॉबी क्लास में जाऊंगा।’
धीरे से एक अन्य आवाज आई
‘हम तो अगले मंडे को बैंकॉक जाएंगे। पूरे एक हफ्ते का ट्रिप है एक हफ्ते का।‘
इस प्रसंग से यकायक अपने बचपन के दिन याद आ गए | परीक्षाएँ होते ही छुट्टियों की मस्ती तुरंत शुरू हो जाती थी। उसके लिए किसी तरह की योजना न तो बच्चों को बनानी पड़ती थी, न ही अभिभावकों को। वास्तव में ज्यादातर परिवारों में तो इस पर कोई ध्यान तक नहीं दिया जाता था। बच्चे खुद ही तरह-तरह के खेलों में जुट जाते थे। हर तरह के खेल। बिना किसी औपचारिक कोर्स-क्लास या खर्च के खेल।
कंचे, गिल्ली-डंडा, खो-खो, कबड्डी, साइकल रेस, साइकल के पहिये या टायर को लकड़ी से चलाना, पूरे मोहल्ले या कभी-कभी शहर में ट्रेजर हंटर सुबह साढ़े छह-सात बजे खेल-कुदव्वल और धमा चौकड़ी शुरू हो जाती। किराये की सायकिल चलाना। बीच में डांट-फटकार के साथ नाश्ता और दोपहर का भोजन होता। दोपहर को डेढ़-दो घंटे की नींद। उठकर, कुछ ठंडाई पीकर घरों में ही खेलना। शाम को फिर बाहर निकल जाना। घर से कई बार के बुलावे के बाद रात को आठ-नौ बजे घर आकर भोजन करना।
उसके बाद भी इस फिराक में रहना कि एकाध घंटे और कुछ मस्ती कर ली जाए. अंत में, दसेक बजे सोते समय मन में अगले दिन की करामातों का लेखा-जोखा बुनना और रात को उन्हीं के सपने देखना।
भारत के कस्बों और छोटे शहरों में गर्मियों की छुट्टियों (SUMMER VACATION) के दौरान यही बाल संसार हुआ करता था। शुरू के 10-15 दिन सारे खेलों को आजमाने के बाद दोपहर को पढ़ने का शगल चलता। हमारे घर नंदन, पराग, चंपक और चंदामामा पत्रिकाएँ आती थीं। कुछ पड़ोसी बच्चे लोटपोट और इंद्रजाल कॉमिक्स लेते थे।
दोपहर को हमारी बैठक (ड्राइंग रूम) लाइब्रेरी बन जाती। पड़ोस के बच्चे अपनी-अपनी पत्रिकाएँ या कहानियों की किताबें ले आते। दो-तीन घंटे सब एक-दूसरे की चीजें पढ़ते। किसी के घर से बुलावा आता, तो वह कहता कि बस ये कहानी पूरी करके आ रहा हूँ। अगले बुलावे तक दो तीन कहानियाँ और पढ़ ली जातीं। खेल-खेल में पढ़ना भी हो जाता था। सभी बच्चों को वहीं से पढ़ने की आदत पड़ जाती। यह बाद में बहुत काम आती। कहानी-किस्से पढ़ने के साथ एक और पढ़ाई का चस्का पांचवीं क्लास के बाद पड़ गया। अगली क्लास की किताबें अपने सीनियर बच्चों से लेकर गर्मियों में पढ़ डालना।
इस सबके दौरान जरा भी अहसास नहीं होता कि पढ़ाई हो रही है। सब कुछ मजे-मजे में हो जाता। न कोई खर्चा, न कोई औपचारिकता, न कोई बंदिश, न ही किसी तरह का दबाव।
पर अब वक्त बहुत बदल गया है। कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा। बच्चों की गर्मियों की छुट्टियां (SUMMER VACATION) भी नहीं। अब तो बस गलाकाट स्पर्धा है, दिखावा है और है आगे बढ़ने की अंधी दौड़। इस सबके कारण मासूमियत कंही खो गई और स्वाभाविकता भी नहीं रही। शायद आज के बच्चे जिंदगी में ज्यादा सफल हो जाएं, मगर जिंदगी के असली पाठ उन्हें कैसे और कहां से मिलेंगे?