मृत्यु एक और एक मात्र अंतिम सत्य है, जीवन का। इस दुनिया में जो आया है उसे एक न एक दिन मृत्यु को अवश्य प्राप्त होना है। अनंत काल से हिन्दू धर्म में तीन प्रकार के ऋण के बारे में बताया गया है, देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। इन तीनों ऋण में पितृ पक्ष या Shraddha का महत्त्व इसलिए है क्यों की पितृ ऋण सबसे बड़ा ऋण माना गया है। शास्त्रों में पितृ ऋण से मुक्ति के लिए यानी Shraddha कर्म का वर्णन किया गया है।
हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका Shraddha करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।
इन 16 दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्यु तिथि पर पार्वण Shraddha करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात् उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ Shraddha कहते हैं। Shraddha का समय हमेशा जब सूर्य की छाया पैरो पर पड़ने लग जाये अर्थात दोपहर के बाद ही शास्त्र सम्मत है। ध्यान रखें सुबह-सुबह अथवा 12 बजे से पहले किया गया श्राद्ध पितरों तक नहीं पहुंचता है।
ऐसी मान्यता है कि आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था “प्रेत” है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में Shraddha करने से पित्तरों को प्राप्त होता है ।
हमारे शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में तर्पण और Shraddha करने से व्यक्ति को अपने पूर्वजों का आशीर्वाद प्राप्त होता है। जिससे घर में सुख शांति और समृद्धि बनी रहती है। ऐसी मान्यता है कि अगर पितर रुष्ट हो जाता है तो व्यक्ति को जीवन में बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। पितरों की अशांति के कारण धन हानि और संतान पक्ष से भी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
मान्यताओं के अनुसार यमराज सभी पितरों को साल में एक बार पितृपक्ष के महीने में 15 दिन के लिए पाश मुक्त कर देते हैं। ये पितर अपने-अपने पुत्रों के पास तिलांजलि की कामना लिए आते हैं। जो सत्पुरुष अपने पितरों को श्रधांजलि देकर तृप्त कर देता हैं वह अपने पितरों से आशीर्वाद पाता है। इसके विपरीत जिस पितर को अपने घरवालों से कोई तर्पण नहीं मिलता वह लोक कुपित होकर अपने वंशजो को श्राप देते हैं। इससे पितृ दोष लगता है।