हाल ही में भारत के बोधगया में हुए बम विस्फोटों के बाद रोहिंग्या मुस्लिम सुर्खियों में हैं, लेकिन प्रश्न यह भी है कि आखिर Rohingya हैं कौन?
ये Rohingya प्रमुख रूप से म्यांमार (बर्मा) के अराकान (जिसे राखिन के नाम से भी जाना जाता है) प्रांत में बसने वाले अल्पसंख्यक मुस्लिम लोग हैं। म्यांमार में करीब 8 लाख Rohingya Muslims रहते हैं और वे इस देश में सदियों से रहते आए हैं, लेकिन बर्मा के लोग और वहाँ की सरकार इन लोगों को अपना नागरिक नहीं मानती है। बिना किसी देश के इन रोहिंग्या लोगों को म्यांमार में भीषण दमन का सामना करना पड़ता है। बड़ी संख्या में रोहिंग्या लोग बांग्लादेश और थाईलैंड की सीमा पर स्थित शरणार्थी शिविरों में अमानवीय स्थितियों में डटे हुंवे है ।
म्यांमार के रखाइन प्रांत से भागकर जो लगभग तीन लाख Rohingya लोग बांग्लादेश पहुंचे हैं वह सब उत्तरी ज़िलों मोंगडॉ, बुथीडोंग और राथेडांग से आते हैं। ये म्यांमार में Rohingya आबादी वाले वह अंतिम इलाक़े है जहां रोहिंग्या राहत कैंपों में नहीं हैं। इन इलाक़ों तक पहुंचना बहुत मुश्किल है। सड़कें बेहद ख़राब हैं, यहाँ जाने के लिए सरकार से अनुमति लेनी होती है जो पत्रकारों को बहुत मुश्किल से मिलती है।
यंहा की सरकार के अपने तर्क भी हैं जिन्हें सुना जाना चाहिए | म्यांमार की सरकार अब एक सशस्त्र विद्रोह का सामना कर रही है बहुत से लोगों का ये भी मानना है कि सरकार ही इसके लिए ज़िम्मेदार है। रखाइन प्रांत में सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास लंबा है और इससे निबटना किसी भी सरकार के लिए मुश्किल काम है।
वर्ष 1785 में बर्मा के बौद्ध लोगों ने देश के दक्षिणी हिस्से अराकान पर कब्जा कर लिया। तब उन्होंने Rohingya Muslims को या तो इलाके से बाहर खदेड़ दिया था। इस अवधि में अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल भाग गए जो कि तब अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था। वर्ष 1824 से लेकर 1826 तक चले एंग्लो-बर्मीज युद्ध के बाद 1826 में अराकान अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया।
तब अंग्रेजों ने बंगाल के स्थानीय बंगालियों को प्रोत्साहित किया कि वे अराकान ने जनसंख्या रहित क्षेत्र में जाकर बस जाएं। रोहिंग्या मूल के मुस्लिमों और बंगालियों को प्रोत्साहित किया गया कि वे अराकान (राखिन) में बसें। ब्रिटिश भारत से बड़ी संख्या में इन प्रवासियों को लेकर स्थानीय बौद्ध राखिन लोगों में विद्वेष की भावना पनपी और तभी से जातीय तनाव पनपा जो कि अभी तक चल रहा है।
दूसरे द्वितीव विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में जापान के बढ़ते दबदबे से आतंकित अंग्रेजों ने अराकान छोड़ दिया और उनके हटते ही मुस्लिमों और बौद्ध लोगों में एक दूसरे का कत्ले आम करने की-की प्रतियोगिता-सी शुरू हो गई. इस दौर में बहुत से रोहिंग्या मुस्लिमों को उम्मीद थी कि वे अंग्रेजों से सुरक्षा और संरक्षण पा सकते हैं। इस कारण से इन लोगों ने एलाइड ताकतों के लिए जापानी सैनिकों की जासूसी की। जब जापानियों को यह बात पता लगी तो उन्होंने Rohingya Muslims के खिलाफ यातनाएं देने, हत्याएं और बलात्कार करने का कार्यक्रम शुरू किया। इससे डर कर अराकान से लाखों रोहिंग्या मुस्लिम फिर एक बार बंगाल भाग गए ।
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति और 1962 में जनरल नेविन के नेतृत्व में तख्तापलट की कार्यवाही के दौर में Rohingya Muslims ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, थी लेकिन तत्कालीन बर्मी सेना के शासन ने यांगून (पूर्व का रंगून) पर कब्जा करते ही अलगाववादी और गैर राजनीतिक दोनों ही प्रकार के रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की। सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार कर दिया और इन्हें बिना देश वाला (स्टेट लैस) बंगाली घोषित कर दिया।
तब से स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। बर्मा के सैनिक शासकों ने किसी कारण से 1982 के नागरिकता कानून के आधार पर उनसे नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए थे।